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अष्टाङ्ग योग : पतंजलि के योग दर्शन और व्यास का भाष्य पर आधारित ध्यान की विधि

यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड नित्य परिवर्तनशील प्रकृति (जड़ तत्त्व) और सदैव अपरिवर्तनीय पुरुष (चेतन तत्त्व) से निर्मित है, जहाँ प्रकृति सृष्टि के सभी भौतिक रूपों का स्रोत है और पुरुष उसकी चेतना एवं संचालन का आधार है। दोनों अनादि हैं और उनके समन्वय से ही सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन और संचालन संभव होता है।

इस ब्रह्माण्ड में हर व्यक्ति या जीव प्रकृति जनित दुःख से बचने और सुख की खोज में रहता है। योग दर्शन के अनुसार मनुष्य के दुखों के पाँच मुख्य कारण हैं —

  1. अविद्या (असत्य [जड़ तत्त्व] को सत्य और सत्य [चेतन तत्त्व] को असत्य मानना)।
  2. अस्मिता (द्रष्टा [चेतन तत्त्व] का दृश्य [जड़ तत्त्व] से का अविवेकपूर्ण जुड़ाव)।
  3. राग (आसक्ति, किसी वस्तु या व्यक्ति से मोह)।
  4. द्वेष (किसी वस्तु या व्यक्ति का प्रतिकर्षण)। 
  5. अभिनिवेश (मृत्यु का भय)। 

यह समस्त वृत्तियाँ चित्त में उदय होती हैं, जो जड़ प्रकृति का ही अंश है। योग दर्शन का केंद्रीय विषय चित्त है, जिसके ये चार मुख्य भाग हैं — 

  1. मन: संकल्प-विकल्प (इच्छा/अनिश्चय) की शक्ति। यह इंद्रियों से प्राप्त सूचनाओं पर विचार करता है।
  2. बुद्धि: निश्चय (निर्णय) और विवेक की शक्ति।
  3. अहंकार: “मैं” और “मेरा” की भावना।
  4. चित्त: स्मृति और संस्कारों का संग्रह।  

जाने-अनजाने में, बाहरी या आंतरिक कारण, हमारे कलिष्ट स्मृति और संस्कारों को सक्रिय कर देता है, जिससे चित्त में कलिष्ट वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं — यही दुःख का मूल कारण बनती हैं और इन्हें नष्ट करना ही योग साधना का मुख्य उद्देश्य है। सूक्ष्म स्तर पर ध्यान संस्कारों पर कार्य करता है — उन्हें शुद्ध करता है, रूपांतरित करता है और अंततः नष्ट कर देता है, जिससे चित्त शुद्ध, स्थिर और निर्विकार हो जाता है।

चित्त की कलिष्ट वृत्तियों का निरोध ही योग है। जब चित्त की सभी वृत्तियाँ शांत हो जाती हैं, तब द्रष्टा अपने शुद्ध स्वभाव में स्थित होता है; अन्यथा द्रष्टा कलिष्ट वृत्तियों के समान हो जाता है और दुःखी होता रहता है। 

ध्यान की प्रक्रिया में साधक क्रमशः योग के आठ अंगों के माध्यम से चित्त की कलिष्ट, अशुद्ध और अनियमित वृत्तियों को नियंत्रित करता है —

  1. यम – आचार नियम व नैतिक संयम।
  2. नियम – आत्म अनुशासन और आंतरिक शुद्धता।
  3. आसन – स्थिर और आरामदायक शरीर स्थिति।
  4. प्राणायाम – प्राण (श्वास) का नियंत्रण।
  5. प्रत्याहार – इंद्रियों का विषयों से निवर्तन।
  6. धारणा – चित्त को एक स्थान (देश) पर स्थिर करना।
  7. ध्यान – निरंतर एकाग्रता का प्रवाह।
  8. समाधि – द्रष्टा का चित्त से पूर्ण एकत्व।

धारणा, ध्यान और समाधि की प्रक्रिया में निम्न त्रिपुटी विद्यमान रहती है। यह त्रिपुटी धारणा में स्पष्ट रूप से सक्रिय होती है, परंतु समाधि में धीरे-धीरे विलीन हो जाती है, जहाँ ध्याता और ध्यान का भेद मिट कर केवल ध्येय का अनुभव रह जाता है — 

  1. ध्याता या द्रष्टा (कर्त्ता), जो ध्यान करता है।
  2. ध्यान की प्रक्रिया (ध्यान), जो चित्त को केन्द्रित करना है।
  3. ध्यान का ध्येय या वस्तु, जिस पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। ध्येय की दृष्टि से  —
    • जब ध्यान में किसी वस्तु का सहारा लिया जाता है, उसे संप्रज्ञात समाधि कहते हैं। 
    • जब ध्येय स्वयं चेतन तत्त्व हो, तब उस अवस्था को असंप्रज्ञात समाधि कहते हैं, जिसमें साधक शुद्ध चेतना द्वारा शुद्ध चेतन में स्थापित होकर अपने शुद्ध स्वरूप की अनुभूति करता है।

ध्यान का मार्ग यम और नियम द्वारा स्थापित शुद्धि और आधार पर आरम्भ होता है, जो जीवन में अनुशासन, आत्म-संयम और स्थिरता की नींव बनाते हैं। 

 I. यम (सार्वभौमिक नैतिक अनुशासन)

यम पाँच सिद्धान्त हैं जो बाहरी जगत के साथ हमारे संबंधों को नियंत्रित करते हैं —

  1. अहिंसा: मन, वचन और कर्म से किसी जीव को हानि न पहुँचाना।
  2. सत्य: वही बोलना जो सत्य, हितकर और प्रिय हो।
  3. अस्तेय: जो वस्तु अपनी नहीं, उसका उपयोग न करना।
  4. ब्रह्मचर्य: सभी प्रकार की ऊर्जाओं का संरक्षण और अनुशासित उपयोग।
  5. अपरिग्रह: लोभ और संग्रह की इच्छा से मुक्त रहना।

II. नियम (आत्म-अवलोकन और अनुशासन)

नियम पाँच साधन हैं जो आन्तरिक जीवन को परिष्कृत करते हैं —

  1. शौच: शरीर और चित्त की शुद्धि।
  2. संतोष: वर्तमान परिस्थितियों को स्वीकार कर संतुष्ट रहना।
  3. तप: द्वंदों को सहन करना, आत्म-अनुशासन और आध्यात्मिक प्रगति हेतु निरंतर प्रयास।
  4. स्वाध्याय: पवित्र ग्रंथों (उपनिषद, सांख्य दर्शन और योग दर्शन) का अध्ययन और आत्म-मंथन। पतंजलि के योग दर्शन में कुल 195 सूत्र हैं, जिन्हें चार पादों में विभाजित किया गया है — समाधि पाद (51 सूत्र), साधन पाद (55 सूत्र), विभूति पाद (56 सूत्र) और कैवल्य पाद (33 सूत्र) हैं।
  5. ईश्वर प्रणिधान: ईश्वर को प्रमुखता से धारण करना और अपने कर्मों के फल को ईश्वर को समर्पित करना।

अगले 6 चरणों को अन्तरंग साधना कहा जाता है, जिसमें साधक आसन पर बैठकर शरीर और चित्त को परिष्कृत करता है तथा आत्म-बोध की ओर अग्रसर होता है। 

III. आसन (मुद्रा)

स्थिर और सुखद आसन ध्यान की नींव है। प्रतिदिन एक ही समय और स्थान पर, सीधी किंतु सहज रीढ़ के साथ, ऊनी आसन पर, पूर्व दिशा की ओर मुख कर बैठें। सिद्धासन या कोई भी आरामदायक मुद्रा अपनाएँ। नेत्र बंद करें, धीरे-धीरे शरीर को शिथिल करें, त्रिनेत्र पर अपना संकल्प स्थापित करके अपने गुरु और इष्टदेव का स्मरण करें, उनका आवाहन करें तथा उनके मार्गदर्शन और सहायता की प्रार्थना करें। 

IV. प्राणायाम (श्वास नियंत्रण)

आसन के स्थिर होने पर, श्वास के माध्यम से चित्त को शान्त किया जाता है। अपनी सहज श्वास की अनुभूति को त्रिनेत्र पर केंद्रित करते हुए उसे साक्षी भाव से देखें। श्वास अंदर लेते समय त्रिनेत्र पर “ओ” की ध्वनि का मन ही मन जप करें और श्वास छोड़ते समय “म्” की ध्वनि का। वर्तमान में पूरी तरह उपस्थित रहें और बीच में किसी भी स्मृति अथवा प्रयत्न को प्रवेश न दें, और श्वासों को क्रमशः लम्बी और सूक्ष्म होने दें।

इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में ध्यान का मुख्य उद्देश्य चेतना को एक स्थान (देश) पर एकत्रित करना होता है, न कि केवल स्थूल इंद्रियों (आँखों) से देखना।  

V. प्रत्याहार (इन्द्रियों का प्रत्याकर्षण)

प्राणायाम से चित्त स्थिर होने पर इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाकर भीतर लाना ही प्रत्याहार है। ध्वनि, स्पर्श और दृष्टि की अनुभूति को बिना व्याख्या के और स्मृति का उपयोग किए बिना, त्रिनेत्र क्षेत्र में अनुभव करें और इन्द्रियों को त्रिनेत्र क्षेत्र में लीन करें। 

VI. धारणा (एकाग्रता)

प्रत्याहार के पश्चात् मुख्य चरण धारणा आरम्भ होता है। 

अपनी सहज श्वास की अनुभूति को त्रिनेत्र पर केंद्रित करके उसे साक्षी भाव से देखते रहें । श्वास अंदर लेते समय त्रिनेत्र पर “ओ” की ध्वनि का मन ही मन जप करते रहें और श्वास बाहर छोड़ते समय “म्” की ध्वनि का जप। पूरी तरह वर्तमान में उपस्थित रहें और बीच में किसी भी स्मृति या विचार को प्रवेश न दें। 

धारणा में, ध्याता, ध्येय, और ध्यान  की त्रिपुटी स्पष्ट रहती है।

VII. ध्यान (अविच्छिन्न प्रवाह)

ध्यान में धारणा की गहराई बढ़ने और उसमें सतत प्रवाह के साथ, यह प्रक्रिया धीरे-धीरे निरंतर ध्यान की स्थिर अवस्था में परिवर्तित हो जाती है। 

अब जप के साथ साथ ॐ के अर्थ का भाव करें — शुद्ध चेतन तत्त्व (ईश्वर) जो काल, देश और कारण से परे, सर्वशक्तिमान, सर्व कल्याणकारी, सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है, उस ईश्वर की उपस्थिति की स्पर्श अनुभूति करें और अपने आप को ईश्वर में लय होने दें।

VIII. समाधि (लय — संप्रज्ञात समाधि)

जब ध्यान पूर्ण होता है, तो साधक और ध्यान की वस्तु में भेद नहीं रह जाता; केवल वस्तु का शुद्ध सार, स्मृति व विचारों से रहित रूप में प्रकाशित होता है। समाधि में ध्याता और ध्यान का बोध पूर्णतः शून्य हो जाता है, और केवल ध्येय का अर्थ शेष रह जाता है — यह समाधि की पूर्ण परिपक्वता है। अब केवल ध्येय का (ईश्वर के गुणों का भाव) सार शेष रहता है, जो शुद्ध समर्पण है। समाधि में ईश्वर के पूर्णता, आनन्द, शांति, ज्ञान और सिद्धियों के प्रभाव साधक को अनुभूत होते हैं। 

ध्यान के अंत में धीरे-धीरे अवरोह क्रम से अपनी चेतना को धीरे-धीरे शरीर में वापस लाएं। अपने गुरु, इष्टदेव और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें। किसी भी त्रुटि या कमी के लिए क्षमा माँगें और समस्त संसार के कल्याण की कामना करें। इसके पश्चात् इष्टदेव से आज्ञा माँगे, शान्त चित्त से साधना का समापन करें और इस शान्त तथा प्रसन्न अवस्था में यथासंभव अधिक समय तक स्थित रहने का प्रयास करें।

धारणा, ध्यान और समाधि जब एक साथ एक ही विषय पर किए जाते हैं, तो इन्हें सामूहिक रूप से संयम कहा जाता है। कुछ योगी कल्याण या आत्म-परीक्षण की भावना से अपने संकल्प द्वारा ध्यान में ईश्वर की ऊर्जा को लक्ष्य की ओर निर्देशित करते हैं। इस प्रक्रिया में वे प्रायः तीसरे नेत्र (भौंहों के बीच) को केंद्रित करते हुए मंत्र, कल्पना और भाव का समन्वय करते हैं। इसके बाद साधना का शुद्धिकरण आवश्यक होता है, क्योंकि अहंकारयुक्त सिद्धियाँ साधक के पतन का कारण बनती हैं। 

धारणा, ध्यान और समाधि प्रारंभ में प्रतिदिन 20 मिनट से शुरू करें। अभ्यास बढ़ने के साथ इसे 60 मिनट या उससे अधिक किया जा सकता है।

ॐ तत्सत् ! ईश्वरार्पणमस्तु !!

 

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